"Jatayu-Sampati"Acrylics on stretched Canvas |
मैं हूं सम्पाति,
बैठा ऊंचे टीले पर,
बूढ़ी हड्डियों को समेट कर.
इस ताक में ताकि,
कभी तो मिल पायेगी,
मेरे हिस्से की कमाई.
मेरा ही था भाई जटायु,
जो सीता हरण के विरुद्ध
रावण से भिड़ पड़ा था.
कटवा कर पंख अपने,
गिर पड़ा था.
उसे तो स्वयं राम ने
थाम लिया था.
संतप्त हृदय राम ने
सजल नेत्रों से
अपना धाम दिया था.
और मैं सम्पाति,
ठहरा खुरापाति.
उड़ चला आकाश में
सूरज को फांदने.
और गिरा पड़ा हूं तभी से
गले हुये पंख लेकर.
नाक कान आंखें
अभी भी सलामत हैं.
दिखाई दिये जा रहे हैं
रावणों के कारनामे.
सुनाई दिये जा रहें हैं,
गर्त-गत्वा राजनीति के तराने.
जिन्दा हूं इस उम्मीद पर,
राम आयेंगे मेरे टीले पर.
क्या है कि अभी
भारत के असंख्य वानर
सरकारी टुकड़ों पर पल रहे हैं.
नल-नील अभी क्लासों में पढ़ रहे हैं.
राम भी हैं कच्ची उम्र के
और जुटाने में लगे हैं
दो जून की रोटी.
और उम्र के हिसाब से
कन्धों पर बोझ भारी.
मैं तिल-तिल मर रहा हूं,
बाट जोह रहा हूं राम की,
उनके लिये ही हैं रक्खीं
अपनी आंखें सम्भाल के.
इन आंखों से दिखाऊंगा उन्हें,
रावणों की पनपती बस्ती.
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