Wednesday 16 July 2014

बचपन के लाहौल यात्रा के संस्मरण 



                                                                  हमीरपुर का गाँव 


 (लाहौल-स्पीती) 1965 -66 में एक वर्ष से ज्यादा काटा है और वहां के  बदलते मौसमों की हर तस्वीर आज तक  मेरे जहन में चिपकी हुई है।                                                          
                            मार्च 1965 में मैं आठवीं पास हो गया था। पढाई में मैं अव्वल था परन्तु अपने हायर सेकेंडरी स्कूल हमीरपुर में मैं दूसरे नंबर पर था। पारितोष में मुझे एक किताब मिली थी "राबिन्स क्रूसो" जिसे मैंने बड़े दिल से पढ़ा था। उन्ही दिनों में पिता जी का तबादला केलौंग हो गया था। उन दिनों लाहौल  स्पीती जाना बड़े साहस और जोखिम वाली बात हुआ करती थी। एक तो यातायात के साधन न के बराबर थे। सड़कें कच्ची थीं और सबसे बडी चनौती थी रोह्तांग  दर्रे को क्रॉस करना। सुना करते थे कि वहां केवल मांस अंडा खाने वाले ही जी पाते थे ,शाकाहारियों के वश की बात नही थी। पिताजी के वहां जाने के उत्साह के आगे लोगों के डरावे क्षीण हो गए और अन्तत: उन्होंने कुछ आवश्यक सामान ले कर हमीरपुर से मनाली के लिए बस पकड़ ली। बस अड्डे पर उन्हें छोड़ने के वक्त मैं उनके साथ ही था। बस के जाते ही मेरे मन में जो भयंकर अवसाद हुआ उसे शब्दों में जाहिर नहीं कर सकता और मेरी आँखों में परल-परल अश्रु धार बह निकली थी। मैं स्वयं को निस्सहाय और डाली से टूटे हुए पत्ते की तरह महसूस करने लगा था। खैर तय यह  हुआ था की पिता जी ने केलांग में जा कर वहां का ठौर ठिकाना देखना था और हमने बाद में घर का जरूरी सामान लेकर वहां मामा जी के साथ जाना था। अनूप अभी छोटा था मासूम सा।

                        हमें केलांग जाने का भय मिश्रित उछाह था। नानू जी हमारा बहुत ख्याल रखते थे। उन्होंने बहुत सी खाद्य सामग्री जिसमें कच्चे आमों की सकोरीयाँ, पक्के आमों के रस को सुखाये हुए आम-पापड़, सुखाई हुई सब्जीयाँ, सूखा पनीर, घरेलु नुस्खों वाली दवाईयां और न जाने क्या क्या तैयार कर के बाँध दीं।  मुझे याद है कि सामान के बहुत ज्यादा नग हो गए थे। बड़े  मामा जी को हमारे साथ भेजने के लिए नियुक्त किया गया था।
                     जुलाई के भीगे महीने में मनाली तक का सफ़र बस में किया।  इस दौरान धूप छाँव और कांगड़ा पालमपुर की हरी भारी वादियों,  जल निमग्न कच्चे हरे धान के खेतों के बीच बस निकलती तो कई बार बासमती की महक का झोंका भी आता।   इन सब नज़ारों से  अलग साथ साथ चलती नीली धौलाधार जिस के नूकीले सिरों पर चांदी के आड़े तिरछे  त्रिकोण नजर आते। कभी कभी चीड़ के स्याह  को लांघते हुए बरखा की फुहारों का आनंद अभी तक स्मृति में ताज़ा  लगता है। जोगिन्दर नगर से आगे घटासनी की ऊंची मोड़दार सड़क और खड़ी चढ़ाई पर बस के इंजन की गूँज से पता चलता था की बस की बस हो गई हो।  फिर मंडी पहुँचने से पूर्व दिखने लगतीं हैं गहरी नीली पहाड़ियों में उलझी हुई बादलों की चिट्टी चादरें।  मण्डी पहुंचते पहुंचते शाम घिर आई थी। मण्डी में हमारे रिश्तेदार थे ओ पी आनंद। शहर के जाने माने शख्श और संपन्न भी। हम सभी उनके घर पहुंचे तो झुरमुट शाम रात में बदल गई थी। शहर की लाईटें जग गईं थीं। उस रात उनके परिवार का प्रोग्राम सिनेमा देखने का बना हुआ था। वे हमें भी आग्रह पूर्वक साथ ले गए। थियेटर में शहीद फ़िल्म चल रही थी नई नई।  उस पिक्चर में भारत-चीन के युद्ध को दर्शाया गया था।  हमारे नौजवानों ने कैसे ऊंचे वर्फीले  हिमालय में देश की खातिर अपनी जान की बाजी लगा दी थी। उस फ़िल्म के गाने बहुत हिट हुए थे। उसमें एक गाना यह भी है "कर चले हम फिदा जानो तन साथियो ,अब तुम्हारे हवाले वतन  साथियो। उन वर्फ के दृश्यों का असर यह हुआ कि मुझ में ठण्ड से लड़ने का अदम्य साहस जागृत हो गया। अगली सुबह बहुत तड़के मनाली के लिए बस पकड़ ली। यह बारदात बड़ी पुरानी है। आज की तरह की सड़कें  थोड़े ही थीं। मण्डी से कुल्लू की सड़क कच्ची और उबड़ खाबड़ थी जो कि उफनती हुई ब्यास नदी के किनारे किनारे ही थी। दरिया का वो रौद्र रूप आज भी जब याद आता है तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। आउट से आगे लगभग ब्यास दूर हो गई और कुल्लू मनाली की यात्रा बड़ी रोचक हो गई। हरियाली और प्राकृतिक सौन्दर्य के साथ साथ हवा के शीतल झोंके। शाम को मनाली पहुन्चे। उधर पिताजी केलांग से हमें लेने के लिए मनाली आ गए थे। धार्मिक प्रवृत्ति होने के कारण पिताजी को देव स्थानों में बड़ी रूचि थी। मामाजी तो उनसे आगे बढ़कर हैं।  प्रात: उठकर हम सभी ऋषि वशिस्ठ चले गए। गर्म पानी के चश्मों में स्नान किया और अपने आप को धन्य समझा। मामाजी वापिस हमीरपुर लौट गए.. सामान के नग खच्चरों पर लदवा कर  हम चारों यानि मैं अनूप बीजी व् पिताजी  बस पकड़ कर राहला के लिए रवाना हो गए।  राहला वो जगह है जहां से रोहतांग दर्रे के लिए चढ़ाई आरम्भ होती है। लगता है जैसे तीनों ओर से ऊंचे पहाड़ों के पैंदे राहला में आ कर रुक गए हों। ऊँचे घने पेड़ों के नीचे एक घुमावदार उथला बहता हुआ नाला था जिसका पानी बहुत ठंडा था। उसके दोनों ओर जहां कहीं भी समतल जगह थी उसमें तिब्बती शरणार्थियों के तम्बू थे। ये लोग लेबर क्लास के लगते थे।  ग़रीबी और गंदगी का सामजस्य। नाले के साथ साथ कच्ची सड़क जाती थी जो कीचड़ और खच्चरों की लीद से लथपथ थी और वो लीद की तीखी दुर्गन्ध आज तक मेरे जहन में घुसी हुई है।   घर का सारा सामान आगे खच्चरों पर ले जाया जाना था। राहला से एकदम चढ़ाई शुरू होती थी। मुझे याद है पूर्व की ओर यह चढ़ाई वाला रास्ता था जो कि बड़े गोल पत्थरों से बना था। खच्चर भी उसी रास्ते से के साथ साथ हो कर निकलते थे परन्तु अपना अलग ट्रैक बना कर।  हम लोग मढ़ी तक पैदल चढ़ कर गये।  दिन  दिन में ही मढ़ी पहुँच गए परन्तु बेहद थके हुए। इस जगह केवल तम्बूनुमा होटल थे ,बहुत कम। सामने पूर्व की दिशा में जल प्रपात दिख रहा था। लगता था की आधा पानी ही नीचे नाले में पहुँच रहा हो और शेष  धुंध में परिवर्तित हो जाता हो।  रात को कड़ाके की ठण्ड हो गई।  असह्य।  एक तम्बुनुमा होटल जहां खाना खाया ,वहीं रात भी काटी।  सोने के लिए मात्र शिला निर्मित बैंच ही था। अपने पूरी गर्म कपडे पहन लिए और कम्बल ओढ़ कर वहीं दुबके रहे।  सुबह जल्दी चाय नाश्ता करने के बाद रोहतांग के लिए रवाना हो गए ,रक्त जमा देने बाली फर्न-फर्न हवाओं को काटते हुए।  जोश और उमंग से भरे हुए धीरे धीरे रोहतांग की ओर बढ़ने लगे।  बर्फ के तोदों के बीचों बीच, पत्थरीली कहीं कच्ची सड़क, अनगिनत मोड़ों बाली। मैं सब को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ता गया और सड़क के किनारे की वर्फ की दीवारों पर अपने छाते से कुछ लिखता गया ताकि पीछे आने वाले पढ़ सकें। हवा पतली हो रही थी और सांस अधिक फूलने लगा गया था। मुझे आज भी हैरानी होती है कि वह ठण्ड से लड़ने की शक्ति न जाने कहाँ से आ गई थी।  रास्ते में शायद बी एस ऍफ़ के जबान और बुलडोजर भी काम पर लगे हुए थे। काफी देर के बाद  ये सभी ऊपर दर्रे के पास यात्रियों की सहायतार्थ लगे बी एस ऍफ़ के टैंट के समीप पहुंचे। उस समय हमारे हाथ  पाँव बुरी तरह से ठन्डे हो चुके थे।  टैंट में तैनात नौजबानों ने गर्मागर्म  और कड़क चाय पिलाई जिसका स्वाद अभी तक याद है।  वहीं  हमने व्यास कुण्ड , ब्यास का उद्गम स्थान  और उस प्रस्तर शिला के दर्शन
 भी किये जिस पर वेद ब्यास ऋषि ने तपस्या की थी. यह काफी बड़ी शिला है जिसकी ऊपरी सतह समतल है। विस्मय होता है वेद ब्यास के असाधारण व्यकित्व पर और शारीरिक क्षमता पर जिन्होंने इतनी जानलेवा ठण्ड में निर्विघ्न समाधि ली और बाद में उन्होंने महाभारत ग्रन्थ की रचना की उसी में श्रीमद्भग्वत गीता भी सम्मिलित है जो की दुनिया भर में सर्वोत्कृष्ट अध्यात्मिक  पुस्तक मानी जाती है। हमारे शास्त्रों में यह भी उधृत है की इस ग्रन्थ का लेखन का कार्यभार श्री गणेश ने स्वयं अपने ऊपर लिया था।
                              चलो आगे चलते हैं। कुछ देर अपनी ऊर्जा को समेटने के बाद हम लोग रोह्तांग दर्रे की ओर बढ़ गए। बुलडोज़रों की सहायता  से बर्फ को काट कर बनी हुई सड़क जिस पर चलना जोखिम भरा कार्य था क्योंकि वर्फ और कीचड़ से गच्च सड़क थी जिस पर घोड़ों के खुरों ने उबड़ खाबड़ कर छोड़ा था। सड़क के दोनों ओर वर्फ की ऊंची दीवारें नजर आती थीं। जितना मुझे याद है  यह सड़क उत्तर की ओर जाती है। जैसे ही उस सुरंग नुमा सड़क को पार किया तो सामने उत्तर की ओर के भूरे रंग के शुष्क और बेहद कठोर पर्वत दिखने लगा जो रोह्तांग दर्रे से काफी ऊंचा था।  उसकी विशेष प्रकृति को देख कर मन में अद्भुत दुनिया की कल्पना जाग उठी। ये तो ईश्वरीय प्रतीत होता था। भगवान शिव के विराट स्वरूप जैसा। इसमें जीवन की हरियाली तो थी ही नहीं। इस के पाँव अपरिमित गह्वर खाई में छुपे लगते थे। अब सड़क में उतराई शुरू हो गई। मोड़ों वाली सड़क जिसका एक -एक मोड़ आधे किलोमीटर से अधिक ही होगा।  हम तो शार्टकट रास्तों से नीचे उतरते गए। हुआ यह कि बीच में ओलावृष्टि शुरू हो गई जिससे हम आतंकित हो गए। शाम घिरने से पूर्व हम खोक्सर जा पहुंचे। भागा नदी के तट के साथ तम्बुनुमा होटल में जा कर थकान उतारने के लिए चाय पान किया। नदी पार कर के छोटी कच्ची सड़क थी जो केलांग को जोड़ती थी। इस सड़क के साथ वाले कुछ हिस्से तक बहुत ही नर्म घास दिखाई देती थी।  हम एक जीप में बैठ कर केलांग के लिए चल पड़े। जीप ठस्स्मठस भरी हुई थी। दरिया के साथ साथ फिर ऊंचाई पर पहाड़ की तराई पर कुछेक वस्तियाँ भी नजर आने लगीं।  ज्यादातर बौद्ध गोम्पा और स्तूप दिखते।  यह अलग ही दुनियाँ  है। पहाड़ की चोटी कभी नजर नहीं आई.