Tuesday 1 September 2020

अनूप से ठी की एक कविता का कांङ्गड़ी में रूपान्तरण

 अनूप सेठी, मुम्बई की एक कविता जिसका - मैंने रूपान्तरण कांङ्गड़ी में किया है, 

प्रस्तुत है।

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शब्द छू कर लौट जाते हैं

त्वचा का स्पर्श लिए

सिरहन रोमांच रत्ती भर नहीं

छुवन की अगन भर बालते हैं शब्द


"काङ्गड़ीया"  च अनुवाद:


सबद टोह्यी नै हटी जान्दे

चमड़ीय्या दा सपर्स लई नै

कम्बणी-रुआन्स रत्ती भर नी

छूअणा दीया अग्गू भर बाळदे

सबद।


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आत्मा के कुंभ में गोता लगाने को उद्धत

अक्षर-अक्षर डूबते

सूखी लकड़ी-से तैर आते हैं


अनुवाद :


आत्मा दे कुम्भे च चुब्भी लाणे यो

तकोह्यो

अक्खर अक्खर डुबदे

सुक्के लकड़ुये सांह्यी तरी औन्दे ।

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जिंदगानी के अपने हैं हाल बदलहाल

शब्दों की कुछ और ही है

बनी बनाई चाल


अनुवाद:


जिन्दड़ीया दे अपणे हाल हैन

बदहाल

सबदां दी होर ई है बणी-बणाई चालI

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शब्द बिना कुछ कहे लौट जाते हैं


अनुवाद:


सबद बिना किनच्छ बोल्ले हटी जान्दे (पचांह् )

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शोर मचाते हुए आते हैं

तूमार खूब बाँधा जाता है

साइकिल की पीठ पर बँधी सिल्ली जैसे

ठिकाने पर लगने से पहले ही गल. जाते हैं

अनुवादः


हल्ला पान्दे औन्दे

गप्पा दा गपाह्ड़ खरा 'क बह्न्यां जान्दा

साईकला दीया पिट्‌ठी प्राह्लैं

बद्धीयो सिल्ला सांह्यीं

ठकाणे लगणे ते पैह्लैं ई

गळी यान्दे ।

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शब्द ही शब्द झंखाड़ धूल

धक्कड़ कितना असबाब

पेड़ भी शर्म से सिर झुकाए रहते हैं

अनु० :


सबद ई सबद झंखाड़ धूड़

धड़ैन्गा किन्ना असवाब

रूक्ख भी सरमा नै मुण्डे न्हीट्ठे पाई रखदे।

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शब्द भुनभुनाते हैं उछल कूद मचाते हैं

अधबीच दम तोड़ जाते हैं

सोचते होंगे कागज

कोई किश्ती बना के ही

तैराता हवाई जहाज उड़ाता

चेहरे पर मली कालिख

छिपाते फिरते हैं कागज

अनु० :

 

सबद भुड़कदे कुद्द कुदैण पान्दे अद्ध गब्भीया दम तोड़ीSन्दे

सोचदे हुन्गे कागद

कोह्की किस्ती बणाई नै ई

तरान्दा ह्वाई झाज ई उड़ान्दा

अपणे थोबड़े पर मळीह्या काळखु

छुपान्दे फिरदे कागद।

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जरा देर चुप रह के देखो

कितना कुछ कितना ज्यादा माँगते हैं शब्द.


अनु० :

 

जरा के दर चुप्प रह्यी नै दिक्‌खा

कितणा  किच्छ कितणा जैदा मंगदे सबदI


(ते कु सेठी )

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