Monday 11 July 2011

dhauladhar ke rang


धौलाधार का आन्चल,
जिसने खिलाया बचपन.
जिसकी हंसी खिल-खिल,
कभी रजितफिर शाम को लाल,
होती हुई ग़ुलाबी फिर बैंगनी,
और धीरे धीरे होती नीलाभ,
जिसे छोड़कर.
कहीं जाने को नहीं
होता था मन,
किसी शहर से भाग आते
जी तोड़ कर,सब छोड़ कर,
जब दिखने लगती धौलाधर,
आती जान में जान.
आये दिन बहुत बदल गई है धौळाधार,
बहुत ग़ुस्सैल हो गई है.
बड़ा बबन्डर खड़ा कर देती है.
धर लेती है काली का रूप
लिये हाथ में खड्ग-खप्पर,
रक्तिम आन्खें तरेर
हुं.हु- हुंकार- विस्फार.
सच में उड़ा देगी मकान छप्पर.
इतना तूफ़ान और विस्फार.

खड़ा किया था इक द्यार,
घर के आन्गन में,
लहु- पसीने से सींच कर,
सोलह साल की कच्ची उमर,
लुढ़का दिया जान बूझ कर.
रह गया मैं होंठ सी कर,
लहू के घूंट पी कर.

अगली सुबह,
खड़ी थी- निष्णात,
निष्पंदनिष्पंक.
उजली और पाक.
और तो और
पृष्ठ-भूमि से
उगता हुआ रोशनी का फब्बारा.