Wednesday 9 March 2016

लाहौल यात्रा के संस्मरण - 3





तांदी के संगम स्थल पर खड़े हो कर देखें तो पश्चिम के उस अत्यंत भयावह पर्वत के पैरों में चंद्रभागा से काफी ऊपर उठा हुआ समतल पठार दिखता है, यही है गोशाल का हरा भरा गाँव . उत्तर पश्चिम की ओर खुली हुई पत्तन घाटी चंद्रभागा के साथ साथ फैली हुई है .  इस घाटी में दूर दूर वस्तीयाँ हैं , गाँव हैं , हरी भरी खेतीयाँ हैं . गरमीयों के महीने में गंदम जौ और सर्दियों की सब्जियां उगाई जातीं हैं . यह सारा दृश्य बड़ा मनमोहक लग रहा था. मैंने बाद में विश्लेषण किया कि खोक्सर से ले कर इस संगम स्थल तक हमारी गाड़ी  एक ही पर्वत के पेट के अगणित घूमों के चक्कर लगाती रही थी, मीलों मील. इस संगम स्थल पर नदियों की तीन लकीरें तीन घाटीयों का त्रिकोण जैसा बनातीं हैं. उत्तर पूर्व की ओर से आती हुई चन्द्र नदी मेरे मन में अद्भुत कल्पनाओं को जन्म देने लगी. एक्सम स्वच्छ नीले आकाश को बेंधती पहाड़ों की धवल नोकें. गाड़ी आगे सरकने लगी. सड़क के एक तरफ ऊंचे पहाड़ की ढलान पर बहुत सी जगहों पर स्वच्छ पानी के झरने भी दिखते रहे . एक स्थान पर पानी पीने के लिए उतरे थे उस मृदु ठन्डे पानी की खुश्बू मुझे अब तक याद है.  लोगों ने बताया कि यह पानी प्राकृतिक जड़ी बूटीयों से होकर आता है इसलिए यह खुशबूदार हो जाता है. थोड़ी देर में के ऊँचे हिमतुन्गों के घेरों के बीचों बीच हरा भरा कैलोंग दृष्टिगोचर होने लगा.  कैलोंग से पहले भी एक गाँव आया और एक बड़े घूम के सिरे पर भयंकर नाला आया. बड़े बड़े पत्थरों पर उछलता हुआ उग्र और वेगवान चिट्टा पानी, पूरे वातावरण में सिहरन पैदा करने वाली नमी फैलाता हुआ. पुल को पार करके सड़क फिर यू टर्न कर के उतनी ही दूरी तय करके कैलोंग के कस्वे में घुस गई.  नर्म कच्चे हरे पत्तों वाले विल्लो के पेड़ों के समूह. बड़ा ही चक्शुप्रिय नज़ारा. एक क्षण के लिए तो लगा कि हम किसी काश्मीर के गाँव में आ गए.  गाडी जहाँ खडी हुई उस सड़क के साथ ही पानी का चश्मा कल कल वह रहा था. मैं हाथ मुंह धोने लगा तो हाथ सुन्न हो गए. हवा भी इतनी ठंडी थी जैसे हमारे यहाँ दिसम्बर में होती है.  मुझे याद आ रहा है कि सामान के बोझे उठाने के लिए चपरासी भी आ गया था, हालाँकि कुछ हमने भी ढोया. चपरासी का नाम याद नहीं आ रहा है. वह  बहुत भला नेक आदमी था. उसका घर नदी पार के छोटे से गाँव में था. बैंक की बिल्डिंग में ही रहने के लिए क्वार्टर था. 
  

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