Friday 2 September 2011

अनूप सेठी: सहजता का अप्रतिम रूप

अनूप सेठी: सहजता का अप्रतिम रूप

जिस मिट्टी से बने यह चक्षु,उस मिट्टी का है कसूर,
पत्थर में भगवान ढूंडते, जिस देश का है दस्तूर.
नद को,पग को,पीपल- वट को, दाड़न औ’ तमाल,
जल में देवा, थल में देवा नभ में औ’ पाताल.
हरियावल में, नारियल में, निम्बू कदली आम,
हर इक फल में,गंगा जल में, ,पुष्पों के कई नाम.
गौ में माता, सिंह पर माता, मूषक, हस्ति, बैल,
मत्स्य, कूर्म, बाराह, कच्छप और सुमेरु शैल.
चन्द्र्मा देवता, सूर्य देवता, शनि, नक्षत्र तारा,
यहां भी वो है वहां भी वो है,कहां नहीं वो प्यारा?
दानव में भी, मानव में भी, अंश- वंश विस्तारा,
वेद, पुराण,कुरान बाईवल गीता में उजियारा.
जिस उजास से साहित्य उगमा-पनपा हुआ बुलन्द,
उसी मूल को गये भूल तो क्या वो होगा सुखन्द?

हां, आप अपनी जगह सही होंगे, पर क्षमा करें, मेरा तात्पर्य ’सुश्री सुमनिका’ को देवता बनाना नहीं था, परन्तु कहीं भी जहां मानवीय मूल्यों का उजास दिखता है,वहां अनायास ही दिव्यता की झलक देखने की चाह होती है और आत्म-तृप्ति भी.



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