Thursday, 20 October 2011

जिन्दा पहाड़


कालका से शिमला की सड़क,
मोड़ पर मोड़.
अन्तहीन मोड़,

पल पल बदलते दृश्य,
सामने उभरता नया पन,
उमगता अगले मोड़ पर जाने को मन
जैसे हमारा जीवन.

पहाड़ देवता से भी ऊन्चे
आगे और, फिर और ऊन्चे.
दिव्य और नित्‍य  नये.

अपनी दुर्नम्य पीठ पर
अनन्त सम्पदा ओढ़े हुये.

अम्बुजा सीमेन्ट की भयावह चिमनी
जिंदा पहाड़ को काटती महाकाय सुण्डी.
उफनता हुआ दर्द भयंकर,
कोई नहीं सुनता पहाड़ का चुप्‍प चीत्कार.
क्या कोई जिन्दा पहाड़ को भी काटता है
वह भी माता अम्बुजा का नाम लेकर?

Friday, 2 September 2011

अनूप सेठी: सहजता का अप्रतिम रूप

अनूप सेठी: सहजता का अप्रतिम रूप

जिस मिट्टी से बने यह चक्षु,उस मिट्टी का है कसूर,
पत्थर में भगवान ढूंडते, जिस देश का है दस्तूर.
नद को,पग को,पीपल- वट को, दाड़न औ’ तमाल,
जल में देवा, थल में देवा नभ में औ’ पाताल.
हरियावल में, नारियल में, निम्बू कदली आम,
हर इक फल में,गंगा जल में, ,पुष्पों के कई नाम.
गौ में माता, सिंह पर माता, मूषक, हस्ति, बैल,
मत्स्य, कूर्म, बाराह, कच्छप और सुमेरु शैल.
चन्द्र्मा देवता, सूर्य देवता, शनि, नक्षत्र तारा,
यहां भी वो है वहां भी वो है,कहां नहीं वो प्यारा?
दानव में भी, मानव में भी, अंश- वंश विस्तारा,
वेद, पुराण,कुरान बाईवल गीता में उजियारा.
जिस उजास से साहित्य उगमा-पनपा हुआ बुलन्द,
उसी मूल को गये भूल तो क्या वो होगा सुखन्द?

हां, आप अपनी जगह सही होंगे, पर क्षमा करें, मेरा तात्पर्य ’सुश्री सुमनिका’ को देवता बनाना नहीं था, परन्तु कहीं भी जहां मानवीय मूल्यों का उजास दिखता है,वहां अनायास ही दिव्यता की झलक देखने की चाह होती है और आत्म-तृप्ति भी.



Monday, 11 July 2011

dhauladhar ke rang


धौलाधार का आन्चल,
जिसने खिलाया बचपन.
जिसकी हंसी खिल-खिल,
कभी रजितफिर शाम को लाल,
होती हुई ग़ुलाबी फिर बैंगनी,
और धीरे धीरे होती नीलाभ,
जिसे छोड़कर.
कहीं जाने को नहीं
होता था मन,
किसी शहर से भाग आते
जी तोड़ कर,सब छोड़ कर,
जब दिखने लगती धौलाधर,
आती जान में जान.
आये दिन बहुत बदल गई है धौळाधार,
बहुत ग़ुस्सैल हो गई है.
बड़ा बबन्डर खड़ा कर देती है.
धर लेती है काली का रूप
लिये हाथ में खड्ग-खप्पर,
रक्तिम आन्खें तरेर
हुं.हु- हुंकार- विस्फार.
सच में उड़ा देगी मकान छप्पर.
इतना तूफ़ान और विस्फार.

खड़ा किया था इक द्यार,
घर के आन्गन में,
लहु- पसीने से सींच कर,
सोलह साल की कच्ची उमर,
लुढ़का दिया जान बूझ कर.
रह गया मैं होंठ सी कर,
लहू के घूंट पी कर.

अगली सुबह,
खड़ी थी- निष्णात,
निष्पंदनिष्पंक.
उजली और पाक.
और तो और
पृष्ठ-भूमि से
उगता हुआ रोशनी का फब्बारा.