Tuesday, 25 October 2016

blog dhauladhar: blog dhauladhar: ग़ज़ल रगड़े'

blog dhauladhar: blog dhauladhar: ग़ज़ल 'रगड़े

रगड़े।

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बैठी असां  समा:ह्णे रगड़े।

कितने  होर  लुआणे रगड़े।

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सुर बणी नै मेरेयाँ  गीतां दे।

गोआ  दे नौंएं पुराणे रगड़े।

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रगड़ेयाँ खाई मैं बड्डा होया

गाई गाई  सुणाणे रगड़े।

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तेरीयां गल्लां छुं:ह्यीं दीयां हह्लां।

हिक्का सुआड़ू  बुहाणे रगड़े।

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मसैं इन्हां दा मुल्ल चुका:ह्या।

मुफ्ते  च  नी  गुआणे रगड़े।

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कुछ रगड़े तां लहुएँ स:ग्गेयो।

मसांकड़ी तिक्क पुजाणे रगड़े।

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ज्हादीयाँ जो कुण समझायै।

लगदा   होर  लुआणे  रगड़े।

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मुण्ड ऊखळीया दित्तेया ह्यीया।

मूह्लैं  मूह्ल   कुटाणे रगड़े।

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रगड़े मैंह् तांईं  छत्तर-छाईं।

छन्नी  गास  छुआणे रगड़े।

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कुछ रगड़े  सच्च बणी गै मेरे।

किं:ह्नयां फिरी झुठाणे रगड़े।

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कई तां बैठय्यो इ बक़्ते फतूंह्णा।

सुण,   बक़तें वी छू:हाणे रगड़े।

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बा:हज्जी रगडें जिन्दड़ी सूनी।

जीणे 'यो  होर   सदाणे रगड़े।

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मेरीया सोच्चा दा बतीरा सै:ह्यी।

ताज़े   रोज  मुंगाणे   रगड़े।

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गीत रगड़ेयाँ  दे  'न गळघुट्टू।

"तेज्जैं"  कु:जो सुणाणे रगड़े।

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