लाहौल यात्रा की अगली किश्त
मेरा छोटा भाई अनूप तब बहुत छोटा था। मैं इस बात का जरूर उल्लेख करना चाहूँगा कि जब पिता जी उसे स्कूल में दाखिल करने के लिए ले गए तो उसने पहली कक्षा में बैठने से इन्कार कर दिया. कायदे से तो दाखिला पहली जमात में ही मिलना था. हैडमास्टर साहिब को बड़ा आश्चर्य हुआ. उनकी लाख कोशीशों के बाबजूद यह नहीं माना . आखिर हैडमास्टर जी ने उससे कुछ प्रश्न पूछे . इसके उत्तरों को सुन कर हैडमास्टर साहिब को मानना ही पड़ा और अनूप को सीधे दूसरी कक्षा में दाखिला मिल गया.
हम जुलाई की छुट्टीयों में ही कैलोंग के लिए प्रस्थान कर चुके थे . हमारे मनों में इस अद्भुत अचिन्त्य प्रदेश को देखने की इतनी उत्सुकता थी कि जोखिम से भरी और थका देने वाली यात्रा की लेश भर भी परवाह नहीं थी। भागा के किनारे वाले पहाड़ की छोटी अगोचर थी. भागा नदी के ऊपर पुल को लांघ कर सामने कच्ची सड़क हमारी अगली यात्रा का स्वागत कर रही थी. सड़क के साथ साथ बड़ी नाज़ुक कच्ची नरम घास पनपती हुई देख कर मुझे और ही तरह का अनुभव हुआ. यूं लगने लगा कि सृष्टि की प्रथम घास जीवन के लिए संघर्ष कर रही हो. यहाँ का सारा दृश्य किसी और ही दुनियाँ से परिचय करा रहा था. उत्सुकता बरकरार थी . दरिया के पार एक जीप हमारे अगली यात्रा के लिए बुला रही थी . हमारी पीठों पर भारी बैग थे . ठण्ड इतनी थी कि काफी गर्म कपड़ों का बोझ तो हमारे शरीर ने पहले से ही उठा रक्खा था . जीप में जगह की तंगी थी . और भी सवारियां और उनके अपने अपने बोझे. कच्ची उबड़ खाबड़ सड़क पर जीप सरकने लगी . मोड़दार कच्ची सड़क कभी नाले की तरफ भीतर घुसती और फिर घूम कर दूसरे मोड़ तक आती और पुनः अगले और गहरे नाले के छोर को छू कर वापिस .. इस प्रकार अनेकों पुनरावृत्तियों के साथ चढ़ाई आ जाती और फिर मुड़ कर उतराई में आ जाती थी। सामने दूसरे पहाड़ की हरी मखमली पीठ पर इनी गिनी वस्तियाँ भी दिख जातीं थीं जिनके बीच बहुधा शिला लेख और गोम्पे भी नजर आते. सड़क के किनारे पत्थरों पर पत्थर रक्ख कर सजावटें और शैल पत्थरों पर भूटी भाषा में मन्त्र उकेरे हुए. रंगदार कपड़ों की झंडीयां जिन पर मन्त्र लिखे होते , हवा में पहराते हुए . भागा नदी सड़क से कभी दूर हो जाती तो कभी पास हो आती. हरी और स्लेटी र्रंग की वेगवान जलधारा . पता नहीं कितने मील तय करने के बाद लगने लगा कि इस गहरी घाटी के पाट खुलने वाले हैं। शुद्ध नीले अम्बर का एक टुकड़ा दो बेशुमार ऊंचे पर्वतों को हटाता हुआ नीचे उतरने लगा और हम विस्फारित आँखों से इस रोमांच भरे नवलोक के दृश्यों को अबोध बालकों की तरह देखते भी जाते और बीजी के साथ बतियाते भी जाते। पिता जी से कम बात होती थी। वह अकेले में अपने आप में अपने आप से से ही बतियाते लगते तो मुझे उनसे कुछ भी पूछने की हिम्मत नहीं जुट पाती थी। यह तो मैंने वार महसूस किया कि उनके मन में बड़ी इच्छा थी कि मैं पढ़ाई में बहुत आगे निकल जाता और आई ए ऐस की परीक्षा में सफल होता, क्योंकि तब तक मैं आठवीं की परीक्षा में स्कूल में दूसरे नंबर पर था। मुझे याद है कि मेरी स्मरण शक्ति और क्रिएटिविटी कल्पना शक्ति और कुछ नया करने का उत्साह बहुत था। खैर, जीप हमें खुली घाटी में ले आई। यह था चंद्र और भागा का संगम स्थल। पश्चिम में चट्टानी भयावह पर्वत, जिसके माथे पर भूरी स्लटी तिरछी तहें . जैसे शिव ने क्रोध से भृकुटी तनी हो और इस वृहद् प्रस्तर महा पिण्ड के पैंदे में बिछा हुआ गौशाल गाँव। हरा भरा। मुझे बताया गया कि वह एक बड़ा उपजाऊ क्षेत्र है और वहां काई धनाढ्य लोग रहते हैं। अब तक हमारी जीप याद नहीं कितने किलोमीटर तक उत्तर वाले विशाल पर्वत के एक ही ओर चक्कर लगा कर तांदी पहुंची तो लगा कि अब हमें एक पुल लांघ कर उत्तर पूर्व की ओर मुड़ना था, जिस ओर से शुद्ध नीली हरी चन्द्र नदी के घेरे आते हुए लग रहे थे .
मेरा छोटा भाई अनूप तब बहुत छोटा था। मैं इस बात का जरूर उल्लेख करना चाहूँगा कि जब पिता जी उसे स्कूल में दाखिल करने के लिए ले गए तो उसने पहली कक्षा में बैठने से इन्कार कर दिया. कायदे से तो दाखिला पहली जमात में ही मिलना था. हैडमास्टर साहिब को बड़ा आश्चर्य हुआ. उनकी लाख कोशीशों के बाबजूद यह नहीं माना . आखिर हैडमास्टर जी ने उससे कुछ प्रश्न पूछे . इसके उत्तरों को सुन कर हैडमास्टर साहिब को मानना ही पड़ा और अनूप को सीधे दूसरी कक्षा में दाखिला मिल गया.
हम जुलाई की छुट्टीयों में ही कैलोंग के लिए प्रस्थान कर चुके थे . हमारे मनों में इस अद्भुत अचिन्त्य प्रदेश को देखने की इतनी उत्सुकता थी कि जोखिम से भरी और थका देने वाली यात्रा की लेश भर भी परवाह नहीं थी। भागा के किनारे वाले पहाड़ की छोटी अगोचर थी. भागा नदी के ऊपर पुल को लांघ कर सामने कच्ची सड़क हमारी अगली यात्रा का स्वागत कर रही थी. सड़क के साथ साथ बड़ी नाज़ुक कच्ची नरम घास पनपती हुई देख कर मुझे और ही तरह का अनुभव हुआ. यूं लगने लगा कि सृष्टि की प्रथम घास जीवन के लिए संघर्ष कर रही हो. यहाँ का सारा दृश्य किसी और ही दुनियाँ से परिचय करा रहा था. उत्सुकता बरकरार थी . दरिया के पार एक जीप हमारे अगली यात्रा के लिए बुला रही थी . हमारी पीठों पर भारी बैग थे . ठण्ड इतनी थी कि काफी गर्म कपड़ों का बोझ तो हमारे शरीर ने पहले से ही उठा रक्खा था . जीप में जगह की तंगी थी . और भी सवारियां और उनके अपने अपने बोझे. कच्ची उबड़ खाबड़ सड़क पर जीप सरकने लगी . मोड़दार कच्ची सड़क कभी नाले की तरफ भीतर घुसती और फिर घूम कर दूसरे मोड़ तक आती और पुनः अगले और गहरे नाले के छोर को छू कर वापिस .. इस प्रकार अनेकों पुनरावृत्तियों के साथ चढ़ाई आ जाती और फिर मुड़ कर उतराई में आ जाती थी। सामने दूसरे पहाड़ की हरी मखमली पीठ पर इनी गिनी वस्तियाँ भी दिख जातीं थीं जिनके बीच बहुधा शिला लेख और गोम्पे भी नजर आते. सड़क के किनारे पत्थरों पर पत्थर रक्ख कर सजावटें और शैल पत्थरों पर भूटी भाषा में मन्त्र उकेरे हुए. रंगदार कपड़ों की झंडीयां जिन पर मन्त्र लिखे होते , हवा में पहराते हुए . भागा नदी सड़क से कभी दूर हो जाती तो कभी पास हो आती. हरी और स्लेटी र्रंग की वेगवान जलधारा . पता नहीं कितने मील तय करने के बाद लगने लगा कि इस गहरी घाटी के पाट खुलने वाले हैं। शुद्ध नीले अम्बर का एक टुकड़ा दो बेशुमार ऊंचे पर्वतों को हटाता हुआ नीचे उतरने लगा और हम विस्फारित आँखों से इस रोमांच भरे नवलोक के दृश्यों को अबोध बालकों की तरह देखते भी जाते और बीजी के साथ बतियाते भी जाते। पिता जी से कम बात होती थी। वह अकेले में अपने आप में अपने आप से से ही बतियाते लगते तो मुझे उनसे कुछ भी पूछने की हिम्मत नहीं जुट पाती थी। यह तो मैंने वार महसूस किया कि उनके मन में बड़ी इच्छा थी कि मैं पढ़ाई में बहुत आगे निकल जाता और आई ए ऐस की परीक्षा में सफल होता, क्योंकि तब तक मैं आठवीं की परीक्षा में स्कूल में दूसरे नंबर पर था। मुझे याद है कि मेरी स्मरण शक्ति और क्रिएटिविटी कल्पना शक्ति और कुछ नया करने का उत्साह बहुत था। खैर, जीप हमें खुली घाटी में ले आई। यह था चंद्र और भागा का संगम स्थल। पश्चिम में चट्टानी भयावह पर्वत, जिसके माथे पर भूरी स्लटी तिरछी तहें . जैसे शिव ने क्रोध से भृकुटी तनी हो और इस वृहद् प्रस्तर महा पिण्ड के पैंदे में बिछा हुआ गौशाल गाँव। हरा भरा। मुझे बताया गया कि वह एक बड़ा उपजाऊ क्षेत्र है और वहां काई धनाढ्य लोग रहते हैं। अब तक हमारी जीप याद नहीं कितने किलोमीटर तक उत्तर वाले विशाल पर्वत के एक ही ओर चक्कर लगा कर तांदी पहुंची तो लगा कि अब हमें एक पुल लांघ कर उत्तर पूर्व की ओर मुड़ना था, जिस ओर से शुद्ध नीली हरी चन्द्र नदी के घेरे आते हुए लग रहे थे .
No comments:
Post a Comment