एक बूढ़ी भेड़ ने बढ़ा लिये बाल,
बैठ गई ऊन्चे आसन पर,
गुरुपद लिया सम्भाल.
धीरे-धीरे जंगल के
जानवर बनने लगे चेले,
चढ़्ने लगे चढ़ावे,
लगने लगे मेले.
दहाड़ते जो शेर थे,
करते थे मनमानियां,
देख कर भक्तों की भीड़,
पड़ गये अकेले.
पाप-पुण्य के प्रवचन
उनके भी कान में पड़े,
पाप-बोध से कान हो गये खड़े.
वे भी व्रत करने लगे,
हरी घास चरने लगे,
भेड़-भक्त-भीड़ में,
सच्ची भेड़ बन गये.
अन्य भेड़ें प्रसाद छकती रहीं,
फलती रहीं, बढ़ती रहीं,
निर्भीक हो गईं,
निर्बिघ्न जंगल में
राज करती रहीं.
और इस इक्कीसवीं शताब्दी में,
घास की त्रासदी में,
मिनिस्टरों ने घास खानी शुरू कर दी.
और भेड़ें के पास
मांस भक्षण के अलावा
कोई रहा चारा न रहा.
और भेड़ें परिवर्तित होने लगीं भेड़ियों में,
तमचे और बम्ब बिकने लगे रेढ़ियों में.
इस तरह भेड़िये
भेड़ों की खाल में,
आ पहुंचे लोकसभा हाल में.
भेड़ कांड की लय और घ्वनि गजब की है
ReplyDeleteराजधानी की तरह दौड़ती है.
पर यह समझ नहीं आ रहा कि जो आम जनता नामक भेड़ थी उसका क्या हुआ
पूर्वत: भेड़ों(जन साधारण) को एक दार्शनिक (बूढ़ी भेड़) का संरक्षण मिल जाने पर शेरों से जान बच गई, परन्तु जैसे होता आया है समाज के लोग भले ही संत समागमों में जाते रहे हों, बदलाब नहीं के बराबर ही आया बल्कि हुआ यूं कि उदहरणार्थ अन्ना की टोपी हर कोई लुच्चा-लम्पट, पतित-कोढ़ी ओढ़ के "मैं भी अन्ना हूं" तो बन जाता है पर अपनी औकात नहीं भूलता जिसे भेड़िया बनने में देर नहीं लगती. यह तो तय है कि सभी भेड़ॊं की खालों में भेड़िये नहीं हो सकते जबकि यह भी सत्य है कि भेड़िये अपनी मौज़ूदगी दर्ज करवाते हैं और शेर जो सत्य की राह पर चल निकले थे वे संख्या में बहुत कम थे तब भी और तो भला उनका अस्तित्व बैसे भी खतरे में है -हां अगर कोई मर्द का बच्चा शेर बच भी है तो वह कोरे कागज़ॊं पर कवितायें लिख कर अपनी दहाड़ सुनाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर पा रहा बेचारा.....
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